तेल पर शराब की तरह टैक्स लगाना कितना सही?
भारत में आप तेल के लिए जितनी क़ीमत चुका रहे हैं, उसका आधे से ज़्यादा पैसा टैक्सों के रूप में सरकार के पास जा रहा है.
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अब कच्चे तेल के एक बैरल की क़ीमत 30 डॉलर से भी कम हो गई है, कच्चे तेल की क़ीमत पिछले ग्यारह साल में इतनी कम पहले कभी नहीं थी.
लेकिन तेल के लुढ़कते दामों का जो फायदा उपभोक्ता को मिलना चाहिए था, वह फायदा सरकार खुद उठा रही है.
लेखक-पत्रकार आशुतोष सिन्हा के अनुसार, “2008 में यूपीए की सरकार के कार्यकाल में जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोल काफ़ी महंगा था, तब केंद्र सरकार ने एक्साइज़ ड्यूटी को बिल्कुल कम कर दिया था. ऐसा करके उन्होंने आम लोगों पर पड़ने वाले बोझ को कम किया. 2014 के आते-आते तेल की कीमतें लुढ़कीं लेकिन सरकार ने इसे कमाई का ज़रिया बनाने का मौक़ा नहीं छोड़ा.”
तब दलील ये दी गई थी कि तेल का जो दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में होगा, उसी अनुपात में खरीदारों से क़ीमत वसूली जाएगी. पर अब जब दाम घट गये हैं, तो उसी अनुपात में दाम घटाए नहीं गए हैं.
आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषक परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं कि “टैक्स सरकार के अधिकार क्षेत्र का मामला है और वह ज़रूरत के अनुसार टैक्स लगा सकती है.”
तेल के बढ़ते दामों पर वे कहते हैं “ये तो सरकार के लिए दुधारू गाय की तरह है.”
पेट्रोलियम उत्पादों के बाद भारत सबसे अधिक पैसा सोने पर खर्च करता है. आयात किए जाने वाले 100 ग्राम सोने पर इंपोर्ट ड्यूटी है 10 प्रतिशत. दिल्ली में इस पर वैट है मात्र 1 फ़ीसदी.
आशुतोष सिन्हा के मुताबिक़ यदि सरकार केवल टैक्स लगाने का ढंग भी बदल दे तो पेट्रोल के दामों में बदलाव आ सकते हैं. मसलन, पेट्रोल पंप पर ख़रीद के समय टैक्स लगाने की जगह रिफाइनरी से मार्केटिंग कंपनियों की तेल ख़रीद के वक़्त टैक्स लगाया जाए तो ग्राहकों पर टैक्स का बोझ कुछ कम हो सकता है.
इसका अंदाजा वित्त मंत्री अरुण जेटली के संसद में दिए गये इस बयान से मिलता है- ’जब केंद्र सरकार पेट्रोल पर एक्साइज़ ड्यूटी कम करती है तो राज्य सरकारें इस पर वैट बढ़ाकर इसके मूल्य को जस का तस रखते हैं, नीचे नहीं आने देते.’
जब संसद में सरकार पर विपक्ष ने तेल के दाम को लेकर हमला किया, तो उंगली राज्य सरकारों पर उठा दी गई. सियासी शोर में पूरा मुद्दा ही रफादफा हो गया.
इससे मिले राजस्व का एक हिस्सा केंद्र सरकार ख़ुद खर्च करती है और एक हिस्सा राज्यों को विकास कार्यों के लिए मुहैया कराती है.
माना जाता है कि चूंकि पेट्रोल का इस्तेमाल ज़्यादातर निजी काम के लिए होता है, इसके दाम बढ़ाए जाने से महंगाई पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता. ऐसा इसलिए कि माल पहुंचाने वाली गाडियां अधिकतर डीज़ल पर चलती हैं.
सेंटर ऑफ़ साइंस एंड एनवायरनमेंट में प्रोग्राम मैनेजर विवेक चट्टोपाध्याय के अनुसार सरकार यह मान कर चलती है कि डीज़ल की खपत ग्रामीण इलाक़ों में अधिक होती है, ख़ास कर खेती में इसका इस्तेमाल होता है, जबकि पेट्रोल की खपत शहरों में अधिक होती है. इस कारण भी डीज़ल के दामों को कम रखा जाता है.
लेकिन पेट्रोल के महँगा होने से टैक्सी के किराए, आम आदमी के दुपहिया वाहन और छोटी कार पर होने वाला खर्च बढ़ जाता है- जिसकी सीधी मार मध्य वर्ग को झेलनी पड़ती है. वैसे भी दुनिया के ज़्यादातर देशों में डीज़ल की क़ीमत पेट्रोल से अधिक होती है.
हाल में सऊदी अरब ने 2016 के अपने सालाना बजट में तेल के दाम 29 डॉलर प्रति बैरल तक रहने की संभावना जताई है यानी दाम बढ़ने के आसार नहीं हैं. पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ओपेक के अनुसार भी अभी कई सालों तक कच्चे तेल की क़ीमतें कम ही रहेंगी.
विश्व बैंक और तेल के बाज़ार पर नज़र रखने वाले भी मानते हैं कि आने वाले कई सालों तक इनकी क़ीमतें बढ़ने की कोई सूरत नहीं दिखती.
ऐसे में क्या सरकार को अपनी ही दलील मानते हुए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की दरों के अनुपात में तेल के गिरती क़ीमतों का फायदा आम लोगों तक नहीं पहुंचाना चाहिए?
क्या आम आदमी इस दिशा में नए साल में सरकार से कुछ रियायत की उम्मीद कर सकता है या फिर टैक्सों के बोझ तले ही दबा रहेगा?
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